Electronics Physics 12th Notes Pdf Download इलेक्ट्रॉनिकी chapter 16

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Lisson - 16

इलेक्ट्रॉनिकी (Electronics)

इलेक्ट्रॉनिकी


इलेक्ट्रॉनिकी :- भौतिक विज्ञान की वह साखा जिसमें इलेक्ट्रोन की गति का विभिन्न परिस्थितियों में अध्ययन किया जाता है इलेक्ट्रॉन की कहलाती है

=> इलेक्ट्रॉनिकी के उपयोग - 

संचार के क्षेत्र में - टेलीफोन, टेलीग्राम, fax मोबाइल

मनोरंजन के क्षेत्र में - Radio,T.V

रक्षा के क्षेत्र में - Radar, मिसाइल नियंत्रण

चिकित्सा क्षेत्र में - X-ray, ECG, EEG

-:- ठोसों में ऊर्जा बैंड - ठोसों के विभिन्न प परमाणु जब एक दूसरे के समीप आते हैं,तो प्रत्येक परमाणु का उर्जा स्तर अनेक ऊर्जा स्तरो में विभक्त हो जाता है इन उर्जा स्तरो के समूह को ऊर्जा बैंड कहा जाता है

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-:- ठोसों उर्जा बैंड के प्रकार - ठोसो में तीन प्रकार के ऊर्जा बैंड होते हैं

(A) - सयोजी बैंड (V.B) - यह सयोजी इलेक्ट्रोनो की उर्जा स्तरो के संयोजन द्वारा निर्मित होता है अत: इसे सयोजी बैंड कहा जाता हैं,

सयोजी ऊर्जा बैंड की विशेषताएं - 
(1) इस बैंड में सयोजी इलेक्ट्रॉन उपस्थित होते हैं

(2) यह बैंड पूर्ण रुप से भरा हुआ अथवा आंशिक रूप से इलेक्ट्रॉनो द्वारा भरा हुआ होता है

(3) इस बैंड के इलेक्ट्रॉन धारा प्रवाह में भाग नहीं लेते हैं

(4) शून्य केल्विन(0 k) पर सयोजी बैंड में इलेक्ट्रॉनो द्वारा ग्रहण अधिकतम ऊर्जा स्तर को फ्रमी उर्जा स्तर कहां जाता है

(5) यह बैंड चालन बैंड के नीचे होता है

(B) चालन बैंड(C.B) :
संयोजी ऊर्जा बैंड से उच्च ऊर्जा बैंड को चालन बैंड कहा जाता है

चालन बैंड की विशेषताएं - 
1 यह बैंड पूर्णत: खाली अथवा आंशिक रूप से भरा हुआ होता है
2 इस में उपस्थित इलेक्ट्रॉन धाराप्रवाह में भाग लेते हैं
3 इस बैंड में उपस्थित इलेक्ट्रॉन उर्जा ग्रहण करने की स्थिति में होते हैं

(C) वर्जित बैंड/वर्जित उर्जा अंतराल :- चालन बैंड तथा संयोजी बैंड के मध्य ऊर्जा अंतराल वर्जित ऊर्जा अंतराल कहलाता है इसे ∆Eg द्वारा व्यक्त किया जाता है इसको e - वोल्ट में मापा जाता है(ev)

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वर्जित बैंड की विशेषताएं -
1 इस बैंड में इलेक्ट्रॉन नहीं पाए जाते हैं
2 यह पूर्णत: खाली होता है
3 ताप बढ़ने पर वर्जित ऊर्जा अंतराल का मान कम हो जाता है
4 वर्जित ऊर्जा अंतराल का सूत्र
   
∆Eg = (Ec.b) न्यूनतम - (Ev.b) अधिकतम


-:- चालकता के आधार पर चालक,कुचालक,अर्धचालक में अंतर :- 
(A) चालक - इसकी चालकता का मान अत्यधिक होता है इसकी प्रतिरोधकता का मन बहुत ही कम होता है यह मान 10-२ ओम से × m 10-8 ओम×m तक होती है इसकी चालकता 10२ om-m- से 10 8om-m- होती हैं

(2) इसमें अत्यधिक मुक्त इलेक्ट्रॉन पाए जाते हैं

(3) ताप बढ़ने पर चालकों का प्रतिरोध बढ़ता है अतः इसका प्रतिरोध ताप गुणांक धनात्मक होता है

(B) कुचालक - 

1 इसका धाराप्रवाह है बहुत ही कम वह प्रतिरोधकता बहुत ज्यादा होती है
2 इसकी प्रतिरोधकता 10 ११ से  m 10 -19 ओम×m तक होती है वह चालकता 10 -११ से 10 -19 om-m- तक होती है
3ताप बढ़ाने पर प्रतिरोध कम होता है अतः इसका प्रतिरोध ताप गुणांक ऋणात्मक होता है

(C) अर्धचालक - 

1 वे पदार्थ जिनकी प्रतिरोधकता चालको से कम वह चालको से ज्यादा होती है

2 इनकी प्रतिरोधकता 10 की घात - 5 से 10 की घात 6 ओम मीटर होती है व चालकता 10 की घात 5 से 10 की घात -6 ओम इन्वर्स मीटर इन्वर्स होती है

3 ताप बढ़ाने पर अर्धचालक ओं का प्रतिरोध घटता है अत: इसका भी प्रतिरोध ताप गुणांक ऋणात्मक होता है

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-:- ऊर्जा बैंड के आधार पर पदार्थों का वर्गीकरण - ऊर्जा बैंड के आधार पर पदार्थों को तीन भागों में विभक्त किया गया है

कुचालक - कुचालक  पदार्थो वे होते हैं जिनमें संयोजी बैंड एवं चालन बैंड के मध्य वर्जित ऊर्जा अंतराल का मान अत्यधिक होता है

2 इनका वर्जित उर्जा अंतराल 3ev से ज्यादा होता है

3 इन पदार्थों का संयोजी बैंड पूर्ण भरा हुआ वह चालन बैंड रिक्त होता है

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4 वर्जित ऊर्जा अंतराल का मान ज्यादा होने के कारण सामान्य ताप पर संयोजी को उसके इलेक्ट्रॉन चालन बैंड में नहीं जा पाते हैं इसी कारण इनका धारा चालन शुन्य होता है

5 इन पदार्थों को अत्यधिक ताप देने पर कुछ ही इलेक्ट्रॉन संयोजी बैंड से चालन बैंड में जा पाते हैं व धारा के  मान में अतिअल्प वृद्धि होती है यह अवस्था भंजक अवस्था कहलाती है

चालक :-
1 चालक व पदार्थ होते हैं जिनमें संयोजी बैंड वह चालन बैंड के मध्य वर्जित ऊर्जा अंतराल का मान्य होता है

2 इनमें संयोजी बैंड व चालन बैंड एक दूसरे पर अतिव्यापित रहते हैं

3 वर्जित ऊर्जा अंतराल सुनने होने के कारण संयोजी कोष के इलेक्ट्रॉन आसानी से चालन बैंड में जा सकते हैं अतः चालन बैंड में मुक्त इलेक्ट्रॉन होने के कारण इनका धाराप्रवाह अत्यधिक होता है


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4 इन पदार्थों का प्रतिरोध कम वह चालकता ज्यादा होती है


अर्धचालक :- 

1 अर्धचालक वे पदार्थ होते हैं जिनमें वर्जित उर्जा अंतराल चालको से ज्यादा व कुचालको से कम होता है

2 इनका वर्जित उर्जा अंतराल 3ev से कम होता है

3 Si के लिए वर्जित उर्जा अंतराल 1.1ev व Ge के लिए वर्जित उर्जा अंतराल 0.72ev होता है

4 शून्य केल्विन पर संयोजी बैंड पूर्णत: भरा हुआ व चालन बैंड पूर्णत: खाली होता है अतः अर्धचालक कुचालक की भांति व्यवहार करते हैं

5 ताप का मान ज्यादा करने पर संयोजी कोष के इलेक्ट्रॉन ऊर्जा ग्रहण करके चालन बैंड में पहुंच जाते हैं व धारा प्रवाह करते हैं

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अर्धचालको के उदाहरण - 

(A) तत्व अर्धचालक  - Si व Ge

(B) योगिक अर्धचालक - योगिक अर्धचालक तीन प्रकार के होते हैं

1 अकार्बनिक अर्धचालक - Cds,GaAs,Inp

2 कार्बनिक अर्धचालक - एंथ्रोसिन मादीत थेलोस्यानिस

3 कार्बनिक बहुलक - पोली पाइसेल, पोली एनीलिन, पोली थायोफीन 


-:- नेज अर्धचालक (Pare Semi Conductor) :- 

एक शुद्ध अर्धचालक जिसमें किसी भी प्रकार की अशुद्धि उपस्थित नहीं हो

Ex- शुद्ध सिलिकॉन व शुद्ध जर्मेनियम

नेज अर्धचालको में अशुद्ध परमाणु एवं शुद्ध परमाणु का अनुपात 1:10घात8 होता है


=> नेज अर्धचालकों की क्रिस्टलीय संरचना - 

नेज अर्धचालको के अध्ययन के लिए हम शुद्ध सिलिकॉन वह जर्मेनियम परमाणु लेते हैं
दोनों ही तत्व आवर्त सारणी चतुर्थ वर्ग के सदस्य होते हैं इनके इलेक्ट्रॉन विन्यास - 
 
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=> Si व Ge दोनों के ही बाह्यतम कोष में चार इलेक्ट्रॉन होते हैं
अत: इनको अपना अष्टक पूरा करने के लिए 4 इलेक्ट्रॉनों की आवश्यकता होती है अतः Si व Ge अपने ही 4 परमाणु ओ से साझा करके चार सह संयोजक बंध बनाते हैं

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=> परम शून्य ताप की अवस्था में सिलिकॉन व जर्मेनियम कुचालक की भांति व्यवहार करता है तथा इनकी चालकता का मान शून्य होता है क्योंकि 0°k केल्विन पर संयोजी बैंड पूर्णत: भरा व चालन बैंड पूर्णत: खाली होता है अतः मुक्त इलेक्ट्रॉनों की अनुपस्थिति के कारण इनका धाराप्रवाह शुन्य होता है
=> परम शून्य ताप से उच्च ताप पर जब इलेक्ट्रॉन तापीय ऊर्जा के कारण संयोजी बैंड से वर्जित ऊर्जा अंतराल को पार करके चालन बैंड में पहुंच जाता है तो चालन बैंड में मुक्त इलेक्ट्रॉन आ जाने के कारण Si व Ge चालक की तरह कार्य करने लगते हैं।

=> जब इलेक्ट्रॉन तापीय उर्जा के कारण संयोजी बैंड से चालन बैंड में प्रवेश करता है तो चालन बैंड में एक मुक्त इलेक्ट्रॉन आ जाता है तथा संयोजी बैंड में एक रिक्त स्थान उत्पन्न हो जाता है जिसको हॉल अथवा कॉटर कहते हैं

=> कॉटर अथवा हॉल इलेक्ट्रॉनों की कमी को दर्शाता है

=> हॉल पर धनात्मक आवेश होता है 

=> ताप देने पर चालन बैंड से मुक्त मुक्त संयोजी बैंड में होल एक स्थान उत्पन्न होते है अत: शुद्ध अर्धचालको में इलेक्ट्रॉन व हॉलो की संख्या समान होती है

=> यदि मुक्त इलेक्ट्रॉन ne व मुक्त हॉल Nn हैं तो शुद्ध अर्द्ध चालक मै ne=Nn=ni होते हैं


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-:- अर्धचालक में विद्युत चालन :- जब शुद्ध अर्धचालक में इलेक्ट्रॉनों की संख्या हॉलो की संख्या के समान होती है तथा इलेक्ट्रॉन वह हॉल दोनों ही विद्युत चालन में सहयोग करते हैं होल धनात्मक आवेश की तरह एवं इलेक्ट्रॉन ऋण आवेश की तरह कार्य करता है

जब शुद्ध अर्धचालको पर विद्युत क्षेत्र अथवा विद्युत विभव लगाया जाता है तो इलेक्ट्रॉन ऋण सिरे से धन सिरे की ओर व हॉल अर्धचालक ऋण सिरे की ओर गति करता है

यदि इलेक्ट्रॉनों के कारण कुल धारा का मान ie हो व हॉलो के कारण कुल धारा का मान ih हो तो अर्धचालक में कुलधारा  I = ie + ih होगा।

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=> यदि इलेक्ट्रॉनों की संख्या ne हो व इनकी गतिशीलता म्यू() हो व आरोपित विद्युत क्षेत्र का मान E हो और इलेक्ट्रॉन का अपवर्तन वेग Ve = - म्यूE 

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-:- नेज अर्धचालकों का कुल धारा घनत्व :- 

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-:- नेज अर्धचालकों की चालकता पर ताप का प्रभाव - 

नेज अर्धचालकों की चालकता ताप पर निर्भर करती है गतिशीलता वह ताप में निम्न संबंध होता है

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आवेश वाहको की सांद्रता (ni) का ताप के साथ निम्न संबंध होता है

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नेज अर्धचालक मैं आवेश वाहक घनत्व तथा चालकता दोनों ही वर्जित ऊर्जा अंतराल पर निर्भर करते हैं,
यदि वर्जित उर्जा अंतराल को नियत रखते हुए तापमान में वृद्धि की जाए तो चालकता का मान चर घातांकी रूप से बढ़ता है व प्रतिरोधकता चर घातांकी रूप से घटती है ताप बढ़ाने पर इलेक्ट्रॉन व हॉलो की संख्या में कंपनसील परमाणु औ से टक्करो की संख्या बढ़ जाती है जिससे म्यूe व म्यूh में  कमी आती हैं।

-:- अपद्रवी अर्धचालक/बाह्य अर्धचालक :- 
अशुद्ध अर्द्धचालको को उपद्रवी अर्धचालक कहा जाता है क्योंकि सामान्य ताप पर अर्धचालक की चालकता का मान कम होता है अतः इन की चालकता को बढ़ाने के लिए इनमें अशुद्धियां मिलाई जाती है अर्ध चालको में अशुद्धि मिलाने की प्रक्रिया को डोपिंग/मादन/अपमिश्रण कहा जाता है
मिलाए गए अशुद्ध पदार्थों को डोपेंट/मादक/अपमिश्रक कहां जाता है
अशुद्धि की मात्रा बहुत कम रखी जाती है लगभग 10(की घात 9) परमाणुओं में एक परमाणु की अशुद्धियां मिलाई जाती है

-:- अशुद्धियों के आधार पर अपद्रवी अर्धचालक दो प्रकार के होते हैं -

(1) - n प्रकार के अर्धचालक  (2) - p प्रकार के अर्धचालक

(1) - n प्रकार के अर्धचालक :- 

जब अशुद्ध अर्धचालको में पंच संयोजी तत्व(P,As,Sb)आदि तत्व की अशुद्धियां मिलाई जाती हैं तो प्राप्त अर्धचालक n प्रकार का अर्धचालक कहलाता है
शुद्ध और चालकों की संयोजकता चार होती है वह अशुद्ध परमाणु की संयोजकता 5 होती है अतः अशुद्धि का एक परमाणु अपने 5 इलेक्ट्रॉनों में से Si अथवा Ge के चार अलग-अलग इलेक्ट्रॉनों से चार सह संयोजक बंध बना लेता है परंतु अशुद्धि का पांचवा इलेक्ट्रॉन मुक्त इलेक्ट्रॉन की भांति व्यवहार करता है यह पांचवा इलेक्ट्रॉन अशुद्धि से दुर्बल बंध से बंधा होता है

अतः अशुद्ध परमाणु अपना एक इलेक्ट्रॉन चालक को मुक्त कर देता है अतः इस अशुद्धियों को दाता अशुद्धि व अशुद्ध परमाणु को दाता परमाणु कहा जाता है इस प्रकार के अर्धचालक ओ में इलेक्ट्रॉनों की संख्या हॉल की संख्या से ज्यादा होती है

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=> बैंड सिद्धांत के आधार पर n प्रकार के अर्धचालको की व्याख्या :-
जब नेज अर्द्ध चालक में दाता अशुद्धियां मिलाई जाती हैं तो दाता प्रमाण दाता ऊर्जा स्तर उत्पन्न करते है जो चालन बैंड के निम्न ऊर्जा स्तर से नीचे होता है
इस दाता स्तरों से इलेक्ट्रोन उसमें ऊर्जा ग्रहण कर आसानी से चालन बैंड में चले जाते हैं व सहसंयोजी बंध टूटने से इलेक्ट्रॉन व हॉलो का युग्म उत्पन्न होता है परंतु इनकी संख्या कम होती है 
अतः इस प्रकार के अर्धचालको में बहुसंख्यक आवेश वाहक इलेक्ट्रॉन व अल्पसंख्यक आवेश वाहक हॉल होते हैं

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(2) - p प्रकार के अर्धचालक :- 

जब नेज अर्धचालको में (Si व Ge) त्री-संयोजी तत्व (Al,Ga,In) आदि तत्वों की अशुद्धि मिलाई जाती है तो प्राप्त अर्धचालक p प्रकार के अर्धचालक कहलाता है

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-:- n व p प्रकार के अर्धचालको में धारा चालन - किसी अर्धचालक में बाह्य विद्युत क्षेत्र आरोपित करने पर मुक्त आवेश वाहक इलेक्ट्रॉन तथा हॉल दो प्रकार की धारा उत्पन्न होती है

( 1) अपवहन धारा (2) विसरण धारा

( 1) अपवहन धारा - यह धारा आरोपित विद्युत क्षेत्र के अनुदेश आवेश वाहको की गति के कारण प्रवाहित होती है
(2)  विसरण धारा - यह धारा  मुफ्त आवेश वाहको के अधिक सांद्रता क्षेत्र से निम्न सांद्रता क्षेत्र की ओर विसरण के कारण उत्पन्न होती है

-:- n प्रकार के अर्धचालक ओ में धारा प्रवाह :- 

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=> जब तक अर्धचालक के सिरे पर विद्युत क्षेत्र आरोपित नहीं किया जाता यह इलेक्ट्रॉन है और इधर उधर गति करते हैं फल स्वरुप धारा का निर्माण नहीं होता है

=> जैसे ही अर्धचालक के सिरों को बैटरी से जोड़ा जाता है तो सभी बहुसंख्यक आवेश वाहक इलेक्ट्रॉन बैटरी के धन टर्मिनल की ओर तथा अल्पसंख्यक आवेश वाहक हॉल बैटरी के ऋण सिरे की ओर गति करते हैं

=> N प्रकार के अर्धचालक ओ में इलेक्ट्रॉन बहुसंख्यक तथा होल अल्पसंख्यक होते हैं इस प्रकार n प्रकार के अर्धचालक में धारा के प्रवाह में मुख्य योगदान इलेक्ट्रॉनों का होता है की हॉलो के कारण नगण्य मान की धारा प्रवाहित होती है

-:- P प्रकार के अर्धचालको में धारा चालन :-
 
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=> जब तक अर्धचालक के सिरों पर विद्युत क्षेत्र आरोपित किया जाता है तब तक इलेक्ट्रॉन है और इधर उधर गति करते हैं जिसके फलस्वरूप धारा का निर्माण नहीं होता है
=> अर्धचालक के दोनों सिरों को बैटरी से जोड़ने पर सभी बहुसंख्यक आवेश वाहक हॉल बैटरी के ऋण सिरे की ओर गति करते हैं तथा अल्पसंख्यक इलेक्ट्रॉन बैटरी के धन सिरे की ओर गति करते हैं
=> P कार के अर्धचालक ओ में हॉल बहुसंख्यक होते हैं तथा इलेक्ट्रॉन अल्पसंख्यक होते हैं इस प्रकार p प्रकार के अर्धचालको में धाराप्रवाह में मुख्य योगदान हॉलो का होता है जबकि इलेक्ट्रॉन के कारण नगन्य मान की धारा प्रवाहित होती है

Q-1 जालक नियतांक किसे कहते हैं?
Ans - ठोसों में परमाणु निकटवर्ती परमाणु से अल्प दूरी से परथकृत होते हैं जालक नियतांक कहते हैं

-:- P-N संधि :- 

=> जब एक p प्रकार के अर्धचालक को n प्रकार के अर्धचालक से परमाणविय स्तर पर इस प्रकार जोड दिया जाए कि इसकी संपर्क सतह पर क्रिस्टल संरचना सतत बनी रहे तो यह संपर्क सतह P-N संधि तथा इस प्रकार बनी व्यक्ति को P-N संधि डायोड कहते हैं।
=> P तथा N प्रकार के अर्धचालको के के रिस्टलों के आधारों को जोड़कर बनाई हुई युक्ति P-N संधि डायोड कहलाती है।

-:- P-N संधि का निर्माण - 

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=> PN संधि बनाने के लिए विसरण विधि का उपयोग किया जाता हैं
=> इसमें p भाग के बहुसंख्यक हॉल n भाग की ओर तथा n भाग के बहुसंख्यक इलेक्ट्रॉन p भाग की और सांद्रता प्रवणता के कारण विसरीत होते हैं
=> जैसे-जैसे हॉल p भाग से n भाग्य और विसरीत हो जाते हैं संधि के p भाग की और ग्राही आयन तथा n भाग की ओर दाता आयन की एक परत विक्षेपित हो जाती है संधि के दोनों पलकों पर विकसित इस परत को अवक्षेय परत या ह्यसी क्षेत्र कहते हैं इसमें केवल स्थैथिक आयन होते हैं
=> P-N संधि में ह्यसी क्षेत्र के सिरों पर उत्पन्न विभवांतर को विभव रोधिका कहते हैं यह n क्षेत्र से p क्षेत्र की ओर इलेक्ट्रॉनों की गति रोकने का प्रयास करता है
=> अवक्षेय परत की चौड़ाई लगभग 1  माइक्रोमीटर (10 - 6m) होती है

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-:- अर्धचालक डायोड : - 
( 1) डायोड दो शब्दों से मिलकर बना है
      DI + ELECTRODE

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=> PN संधि को परिपथ में जोड़ने के लिए इसके P व N सिरों पर धात्विक इलेक्ट्रोड बनाए जाते हैं इस युक्ति को डायोड कहते हैं

डायोड का प्रतीक चिन्ह 

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-:- डायोड का बायसीकरण(अभिनति) - 

=> विद्युत वाहक बल स्रोतों को PN संधि डायोड को जोड़ने का तरीका अभिनती या बायसीकरण कहलाता है

=> यह दो प्रकार का होता है

(1) अग्र अभिनती या अग्र दिशिक बायसीकरण - 
=> जब pn संधि डायोड के p सिरे को बैटरी के धन सिरे से तथा  n सिरे को बैटरी के ऋण सिरे से जोड़ा जाता है तब इस प्रकार की व्यवस्था को अग्र अभिनती या अग्र दिशिक बायसीकरण कहते हैं

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=> इस व्यवस्था में होल बैटरी के धन टर्मिनल से प्रतिकृषित होकर संधि की ओर गति करते हैं तथा इलेक्ट्रॉन बैटरी ऋण टर्मिनल से प्रतिकृषित होकर संधि की ओर गति करते हैं इसके कारण अवक्षेय परत की मोटाई घट जाती है
=> इस प्रकार की व्यवस्था में धारा p सिरे से n सीरिया की ओर बहती है जिसे अग्र धारा कहते हैं इसका मान ml amp की कोटि का होता है
=> अग्र अभिनती में आरोपित विभव अवरोधि विभव के विपरीत होता है अतः अग्र अभिनती में आरोपित विभव Vb से घटकर Vb - V रह जाता है (आरोपित क्षेत्र तथा अवरोधि क्षेत्र विपरीत दिशा में होने के कारण)


(2) पश्य अभिनती या पश्य दिशिक बायसीकरण

=> जब  P-N संधि डायोड के p सिरे को बैटरी के ऋण टर्मिनल से तथा n सिरे को बैटरी के धन टर्मिनल से जोड़ा जाए इस प्रकार की व्यवस्था को पश्च बायसीकरण कहते हैं

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=> पश्च बायस के P-N संधि की प्रभावी धारिता 10( की घात-12)F होती है
=> इस व्यवस्था में हॉल बैटरी के ऋण सिरे से आकर्षित होकर संधि की ओर गति करते हैं तथा इलेक्ट्रॉन बैटरी के धन सिरे से आकर्षित होकर गति करते हैं जिससे अवक्षेय की मोटाई बढ़ जाती है
=> इस प्रकार की व्यवस्था में धारा अल्पसंख्यक इलेक्ट्रॉन व हॉलो के द्वारा उत्पन्न की जाती है जो अल्प मान की धारा होती है
=> पश्य अभिनति में आरोपित विभव अवरोधी विभव एक ही दिशा में होते हैं अतः पश्य अभिनती में विभव Vb से Vb+V हो जाएगा

Q-1 नी वोल्टता किसे कहते हैं?
Ans वह वोल्टता जिस पर धारा की वृद्धि प्रारंभ होती है नि-वोल्टता या देहली वोल्टता कहलाती है
जर्मेनियम(Ge) की नि-वोल्टता - 0.3 volt
सिलिकॉन (Si) की नि-वोल्टता - 0.7 volt

Q-2 प्रति संतृप्त धारा किसे कहते हैं?
Ans - पश्य दिशिक बायस pn संधि में अल्प संख्यक आवेश वाहको के प्रवाह के कारण प्रवाहित अति अल्प धारा को प्रतिप धारा कहते हैं जो बायस में परिवर्तन के साथ लगभग स्थिर बनी रहती है इसे प्रतिप संतृप्त धारा कहते हैं

-:- P-N संधि डायोड का वोल्ट एंपियर समीकरण :

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-:- अर्धचालक डायोड का प्रतिरोध :- 

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-:- उत्क्रम भंजन -  
जब पश्य दिशिक वोल्टता को बढ़ाया जाता है तब पश्य दिशिक वोल्टता का एक ऐसा मान प्राप्त होता है जिस पर डायोड से उच्च मान की धारा प्रवाहित होने लगती है जिस उत्क्रम बायस वोल्टता पर यह घटना देखने को मिलती है उसे जेनर वोल्टता या भंजन वोल्टता (Vz) कहते हैं तथा यह डायोड का उत्क्रम भंजन कहलाती है

=> यह दो प्रकार का होता है
(1) एवलांसी भंजन
(2) जेनर भंजन

(1) एवलांसी भंजन - यह प्रक्रिया ऐसे डायोडो में होती है जिनमें कम डोपिंग (अशुद्धि) होने से अवक्षेय परत मोटी होती है
इस स्थिति में पश्य अभिनति वोल्टता के उच्च मानो पर विद्युत क्षेत्र के कारण p तथा n क्षेत्रों के अल्पसंख्यक आवेश वाहक संधि को पार कर रहे होते हैं तो वे उच्च वेगो से त्वरित हो जाते हैं तब उपस्थित सह संयोजी बन्धो को तोड़कर नए इलेक्ट्रॉन युग्मो का उत्पादन करते हैं यह प्रक्रिया एक श्रृंखला के रूप में होती है जिससे अल्पसंख्याक धारावाहकों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है तथा उत्क्रम धारा अचानक बढ़ जाती है यह प्रक्रिया एवलांसी भंजन कहलाती है


(2) जेनर भंजन - यह प्रक्रिया ऐसे डायोड में होती है जिन में अधिक डोपिंग होने से और अवक्षेय परत पतली होती है

इस स्थिति में पश्च अभिनति वोल्टता के कम मान पर संधि पर विद्युत क्षेत्र तीव्र हो जाता है जिससे संधि के समीप सह संयोजी बंध के इलेक्ट्रॉनों पर पर्याप्त बल लगता है तथा यह बंध टूट जाते हैं जिससे अल्पसंख्यक धारा वाहको की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है तथा धारा का मान तेजी से बढ़ जाता है यह प्रक्रिया जेनर भंजन कहलाती है

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-:- दिष्टकारी (Rectifire) - 
=> प्रत्यावर्ती धारा ( प्रत्यावर्ती वोल्टता) को दिष्टकारी धारा ( दिष्ट वोल्टता) में रूपांतरण करने वाले उपकरण को दिष्टकारी कहते हैं रूपांतरण करने की इस प्रक्रिया को दिष्टकरण कहा जाता है

=> दिष्टकारी तीन प्रकार के होते हैं
(1) अर्द्ध तरंग दिष्टकारी
(2) पूर्ण तरंग दिष्टकारी
(3) सेतु दिष्टकारी(पूर्ण तरंग सेतु दिष्टकारी)

(1) अर्द्ध तरंग दिष्टकारी - 

Note - अर्द्ध तरंग दिष्टकारी की दक्षता 40.6% होती है

=> अर्द्ध तरंग दिष्टकारी वह उपकरण है जो प्रत्यावर्ती धारा या वोल्टता के आधे भाग का दिष्टकरण करता है तथा शेष आधा भाग अनूपयोग रहता है

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=> अर्द्ध तरंग दिष्टकारी की संरचना - इसमें ट्रांसफार्मर के प्राथमिक कुंडली से प्रत्यावर्ती स्रोत वोल्टता/धारा को जोड़ा जाता है तथा ट्रांसफार्मर की द्वितीयक कुंडली से p-n संधि डायोड तथा लोड प्रतिरोध श्रेणी क्रम में जोड़े जाते हैं तथा लोड प्रतिरोध के सिरों पर निर्गत वोल्टता प्राप्त की जाती है

=> अर्द्ध तरंग दिष्टकारी की कार्य विधि :- 
=>प्रत्यावर्ती वोल्टता के धनात्मक अर्ध चक्कर के दौरान - 
प्राथमिक कुंडली का P1 सिरा ऋणात्मक तथा P2 सिरा धनात्मक हो जाता है फलस्वरूप अन्योन्य प्रेरण के कारण द्वितीयक कुंडली का S1 सिरा धनात्मक तथा S2 सिरा ऋणात्मक हो जाता है जिससे परिपथ में परिपथ में जुड़ा डायोड अग्र बायस की अवस्था में चला जाता है तथा परिपथ में धारा बढ़ने/बहने लगती है तथा लोड प्रतिरोध के सिरों पर निर्गत वोल्टता V(नोट) = IRl प्राप्त होती है

=> प्रत्यावर्ती वोल्टता के ऋणात्मक च्रक के उड़ान

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(2) पूर्ण तरंग दिष्टकार - 

Note - पूर्ण तरंग दिष्टकार की दक्षता 2×40.6 = 81.2% होती है

=> पूर्ण तरंग दिष्टकारी एक ऐसा उपकरण है जो प्रत्यावर्ती धारा या प्रत्यावर्ती वोल्टता के संपूर्ण भाग का दिष्टकरण करता है

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=> पूर्ण तरंग दिष्टकार की संरचना  - इसमें ट्रांसफार्मर के प्राथमिक कुंडली P1, P2 से प्रत्यावर्ती स्रोत को जोड़ा जाता है द्वितीयक कुंडली के दोनों सिरो S1 व S2 दोनों डायोडो के धनात्मक सिरे से जोड़ दिया जाता है जबकि इसके ऋणात्मक सिरों को आपस में जोड़ दिया जाता है ऋणात्मक सिरो के उभयनिष्ठ बिंदु X व Y है

=> पूर्ण तरंग दिष्टकार की कार्य विधि - प्रत्यावर्ती वोल्टता के धनात्मक अर्द्ध च्रक के दौरान माना कि प्राथमिक कुंडली का P1 सिरा ऋणात्मक तथा P2 धनात्मक होने से द्वितीयक कुंडली के S1 व S2 ऊपर ऐसे ऋण तथा धन विभव पर आ जाते हैं जिससे डायोड D1 अग्र बायस की अवस्था में तथा डायोड D2 पश्य बायस की अवस्था में आ जाते हैं और डायोड D2 के कारण धारा I प्रवाहित होती है तथा लोड प्रतिरोध के सिरों पर निर्गत वोल्टता V नॉट = IRl प्राप्त होती है
> प्रत्यावर्ती वोल्टता के ऋणात्मक अर्द्ध च्रक के दौरान प्राथमिक कुंडली के P1,P2 सिरो पर क्रमशः धन व ऋण विभव होने से  होने से द्वितीयक कुंडली के S1 व S2 सिरो पर क्रमशः ऋण तथा धन विभव पर आ जाते हैं जिससे डायोड D1 पश्य बायस की अवस्था में तथा डायोड D2 अग्र बायस की अवस्था में आ जाते हैं और डायोड D2 के कारण धारा I प्रवाहित होती है तथा लोड प्रतिरोध के सिरों पर निर्गत वोल्टता V नॉट = IRl प्राप्त होती 

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(3) पूर्ण तरंग सेतु दिष्टकारी - 

=> इसमें निवेश प्रत्यावर्ती वोल्टता ट्रांसफार्मर की प्राथमिक कुंडली और सेतू परिपथ की(ट्रांसफार्मर) द्वितीयक कुंडली के सिरों पर लगाया जाता है
=> जब प्रारंभिक कुंडली में प्रत्यावर्ती धारा स्रोतों को जोड़ा जाता है तब धनात्मक अर्द्ध चक्र के दौरान द्वितीयक कुंडली का A सिरा धनात्मक तथा B सिरा ऋणात्मक होता है डायोड D1,D2 अग्र बायस की अवस्था में  तथा डायोड D3,D4  पश्य बायस की अवस्था में चले जाते हैं 
इस स्थिति में धारा D1 से p से q से D2 में होती हुई बहती है जबकि डायोड D3 व D4 मैं धारा का पालन नहीं होता है
=> प्रत्यावर्ती धारा के ऋणात्मक च्रक के दौरान द्वितीयक कुंडली का A सिरा ऋणात्मक तथा B सिरा धनात्मक होता है 
स्थिति में धारा D3 से P से Q से D4 मैं बहती हुई प्रतीत होती है जबकि डायोड D1 व D2 में धारा का चालन नहीं होता है

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=> इस प्रकार सेतू दिष्टकारी में किसी भी समय केवल दो डायोड़ों से विद्युत धारा प्रवाहित होती है तथा सेतु दिष्टकारी के लिए मध्य निकासी ट्रांसफार्मर के स्थान पर साधारण ट्रांसफार्मर प्रयुक्त करते हैं जो कि कम मूल्य का होता है

Note - सेतु दिष्टकारी में प्रयुक्त डायोड इस प्रकार के होने चाहिए कि पश्य अभिनति अवस्था में इसका भंजन नहीं हो अन्यथा पश्च अभिनति अवस्था में धारा का चालन होने से दिष्टकरण संभव नहीं होगा। अतः डायोड का भंजन विभव ट्रांसफार्मर की द्वितीयक कुंडली पर प्रत्यावर्ती संकेतों के शिखर मान से अधिक होना चाहिए 
अतः इस प्रकार के डायोड शक्ति डायोड कहलाते हैं

Q-4 समकारी फिल्टर किसे कहते हैं तथा इसकी कार्य विधि चित्र सहित समझाइए?
Ans - कुछ विशेष परिपथ जिनकी सहायता से प्रत्यावर्ती घटकों को दिष्ट विभव से पृथक कर शुद्ध दिष्ट विभव प्राप्त किया जा सकता है समकारी फिल्टर कहलाते हैं

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समकारी फिल्टर की कार्यविधि - समकारी फिल्टर परिपथों में मुख्यतया संधारित या प्रेरकत्व अथवा दोनों का प्रयोग करते हैं तथा इसको कम करने के लिए L-C फिल्टर का प्रयोग किया जाता है 
जब दिष्टकारी से प्राप्त निर्गत स्पंद मान दिष्ट विभव को फिल्टर के सिरो के मध्य लगाया जाता है तो प्रेरकत्व द्वारा उत्पन्न प्रतिबाधा प्रत्यावर्ती विभव घटना को रोक देता है। जबकि दिष्ट विभव घटक पर प्रभाव नहीं पड़ता है।
यदि कुछ प्रत्यावर्ती घटक शेष रह जाते हैं तो लोड प्रतिरोध के समांतर क्रम में संधारित्र प्रत्यावर्ती घटक के लिए लघु प्रतिबाधा उत्पन्न करेगा जबकि दिष्ट घटक को रोक लेगा जो कि लोड प्रतिरोध पर प्राप्त होगा अत: लोड प्रतिरोध पर शुद्ध दिष्ट विभव प्राप्त होता है

-:- विशिष्ट प्रयोजन P-N संधि डायोड - 
(1) जेनर डायोड - 
=> जेनर डायोड एक विशेष रूप से निर्मित PN सन्धि डायोड है जिसमें अपद्रव्य की मात्रा अधिक रखी जाती है जिससे अवक्षेय परत की चौड़ाई बहुत कम होती है भंजन वोल्टता कम तथा तीक्षण होती है
=> यह पश्य बायस की अवस्था में प्रयोग में लिया जाता है
=> पश्य बायस की अवस्था में पश्य वाल्टता जिस पर किसी जेनर डायोड से एक अधिक मान की धारा प्रवाहित होने लगती है उसे जेनर वोल्टता कहते हैं।
=> P-N संधि डायोड के पश्य बायस की अवस्था में भंजन के कारण धारा के मान में अचानक वृद्धि के प्रभाव को जेनर प्रभाव कहते हैं
=> जेनर डायोड का उपयोग वोल्टता नियंत्रक में किया जाता है
=> जेनर डायोड का प्रतीक चिन्ह 

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=> जेनर डायोड एक वोल्टता नियंत्रक के रूप में

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-:- आप्टोइलेक्ट्रॉनिक सन्धि युक्तिया - ऐसी युक्तिया आवेश बहारों की उत्पत्ति फोटोनो के द्वारा होती है आप्टोइलेक्ट्रॉनिक सन्धि युक्तिया कहलाती है।
(1) - फोटोडायोड 
(2) LED प्रकाश उत्सर्जक डायोड 
(3) सोलर डायोड


(1) - फोटोडायोड - 
> फोटोडायोड एक ऐसी युक्ति है जो प्रकाश ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में रूपांतरित करती है
> इसे पश्य बायस की अवस्था में उपयोग में लिया जाता है
> प्रकाश की आवृत्ति बढ़ने पर प्रकाश धारा में वृद्धि होती है तथा एक स्थिति ऐसी आती है जब धारा का मान अधिकतम हो जाता है इसे संतृप्त धारा कहते हैं
> इसे प्रकाश डायोड भी कहा जाता है इसका उपयोग फिल्मों में ध्वनि पुनः उत्पादन करने वाला कंप्यूटर टेप कार्ड पढ़ने में तथा प्रकाश स्विचो में किया जाता है

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(2) L.E.D प्रकाश उत्सर्जक डायोड - 

> यह विद्युत ऊर्जा को प्रकाश ऊर्जा में रूपांतरित करता है
>यह P-N संधि डायोड GE, AS, P, तथा GE - P से बना होता है
> यह अग्र  बायस की अवस्था में उपयोग में लिया जाता है
> यह विभिन्न रंगों जैसे गहरा लाल, नीला, पीला, आदि रंगों में पाई जाती है
> इसका उपयोग कृत्रिम उपग्रह, केलकुलेटर, सूचक लाइट, प्रकाशिक तंतु, संचार, घड़ी में  किया जाता है

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-:- ट्रांजिस्टर (Transistor) - 

> जब दो डायोडो को या दो P-N संधियों को आपस में संबंधित किया जाए तो हमें जो व्यवस्था प्राप्त होती है उसे ट्रांजिस्टर कहते हैं
> ट्रांजिस्टर दो शब्दों से मिलकर बना होता है Transistor = Transfer + Registor अर्थात Transistor मैं किसी संकेत को निम्न प्रतिरोध से उच्च प्रतिरोध में भेजा जाता है
ट्रांजिस्टर के तीन सिरे व 2 संधि होती है

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ट्रांजिस्टर की खोज - जॉन बर्दीन, शाक्ले,बैटिन बैल प्रयोगशाला

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=> ट्रांजिस्टर के तीन टर्मिनल होते हैं

(1) एमिटर (Amitter) - उत्सर्जक का कार्य बहुसंख्यक आवेश वाहको का उत्सर्जन करना है

(2) आधार (Base) - आधार का कार्य इन आवेश वाहकों को संग्राहक तक पहुंचाना है

(3) संग्राहक - संग्राहक का कार्य उत्सर्जक द्वारा उत्सर्जित आवेश वाहको को संग्रहित करना है

> P-N-P - जब एक N प्रकार का अर्धचालक दो P प्रकार के अर्धचालक से घिरा होता है तब बनने वाला ट्रांजिस्टर P-N-P ट्रांजिस्टर कहलाता है

> N-P-N - जब एक P प्रकार का अर्धचालक दो N प्रकार के अर्धचालक ओ से घिरा होता है तब बनने वाला ट्रांजिस्टर N-P-N ट्रांजिस्टर कहलाता है

Note - एक ट्रांजिस्टर की दो P-N संधियो को अभिगति करने के लिए चार संभावनाएं हो सकती है

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-:- संधि ट्रांजिस्टर का प्रचलन - 

(A) P-N-P ट्रांजिस्टर का प्रचलन - 

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> P-N-P ट्रांजिस्टर में बायीं और की उत्सर्जक आधार संधि को अग्र बायस में तथा दाईं ओर की आधार संग्राहक संधि को पश्य बायस में जोड़ा जाता है
> अग्र बायस में होने के कारण उत्सर्जक में उपस्थित हॉल आधार की ओर चलते हैं जो कि आधार बहुत पतला है अतः इसमें प्रवेश करने वाले अधिकतर (98%) हॉल इसे पार करके संग्राहक में पहुंच जाते हैं जबकि इसमें से बहुत कम(2%) आधार में उपस्थित इलेक्ट्रॉनों से सयोग करते हैं
> टर्मिनल B से चलने वाली धारा को आधार धारा IB तथा संग्राहक के टर्मिनल C से बाहर जाने वाली धारा को संग्राहक धारा IC कहते हैं

(B) N-P-N ट्रांजिस्टर का प्रचलन - 

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> N-P-N ट्रांजिस्टर में बायी और उत्सर्जक आधार संधिको अग्र बायस तथा दाई और की आधार संग्राहक संधि पश्च बायस मैं जोड़ा जाता है
> पश्य बायस मैं होने के कारण उत्सर्जक में उपस्थित अधिकतर इलेक्ट्रॉन आधार की ओर चलते हैं आधार होने के कारण अधिकतर इलेक्ट्रॉन आधार को पार कर जाते हैं लेकिन कुछ आधार में सयोग कर लेते हैं 
> टर्मिनल B से आने वाली धारा IB व C से आने वाली धारा IC बाहर जाने वाली धारा IE उत्सर्जन के योग के बराबर होती है

IE = IB + IC

=> संधि ट्रांजिस्टर के प्रचलन के निष्कर्ष -
> उत्सर्जक धारा आधार धारा तथा संग्राहक धारा के योग के बराबर होती है अर्थात IE = IB + IC आधार धारा का मान अति अल्प होने के कारण उत्सर्जक धारा का मान लगभग संग्राहक धारा के मान के बराबर होता है IB = अति अल्प 
> आधार को दिये गये समस्त इलेक्ट्रान सफलता पूर्ण संग्राहक में नही पहुंच पाते हैं।
> उत्सर्जक आधार सन्धि की प्रतिबाधा(प्रतिरोध) अति अल्प होता हैं जबकि संग्राहक आधार सन्धिकी प्रतिबाधा उच्य होती हैं।

-:- ट्रांजिस्टर परिपथीय अभिविन्यास - 

> सामान्यतः अधिकतर इलेक्ट्रॉनिक परिपथ चतु टर्मिनल जाल होते हैं जिनमें 2 टर्मिनल निवेसी संकेत प्रयुक्त करने हेतु शेष 2 टर्मिनल निर्गत संकेत प्राप्त करने हेतु काम आते हैं
> किसी संधि ट्रांजिस्टर में केवल तीन टर्मिनल E,B,C होते हैं अतः इस प्रकार के परिपथो मैं ट्रांजिस्टर को इस प्रकार जोड़ा जाता है की तीनों टर्मिनल E,B,C में से कोई एक निवेसी एक निर्गत के मध्य उभयनिष्ठ रहे

=> ट्रांजिस्टर परिपथीय अभिविन्यास तीन प्रकार का होता है

(1) उभयनिष्ठ आधार विन्यास (CB)
(2) उभयनिष्ठ उत्सर्जन विन्यास (CE)
(3) उभयनिष्ठ संग्राहक विन्यास (CC)


(1) उभयनिष्ठ आधार विन्यास (CB) : - इस प्रकार के विन्यास में निवेसी तथा निर्गत के मध्य आधार को उभयनिष्ठ रखा जाता है

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Note - ट्रांजिस्टर परिपथ में सभी वोल्टता उभयनिष्ठ टर्मिनल को भू-संपर्कित मानकर इसके सापेक्ष व्यक्त की जाती है

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(2) उभयनिष्ठ उत्सर्जन विन्यास (CE) - इस विन्यास में निवेसी तथा निर्गत परिपथ के मध्य उभयनिष्ठ उत्सर्जक को रखा जाता है।

(3) उभयनिष्ठ संग्राहक विन्यास (CC) - इस विन्यास में निवेसी तथा निर्गत के मध्य उभयनिष्ठ संग्राहक को रखा जाता है

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-:- ट्रांजिस्टर अभिलाक्षणिक वक्र - 

> ट्रांजिस्टर के निवेसी रिफत वह निर्गत परिपथ में प्रवाहित धाराओ इन परिपत्रों में प्रयुक्त विभवांतर के साथ होने वाले परिवर्तनों को दर्शाने वाले वक्र ट्रांजिस्टर के अभिलाक्षणिक वक्र कहलाते हैं
> जब परिपथ में केवल दिष्ट धारा प्रवाहित हो तथा टर्मिनलो के मध्य कोई लोड प्रतिरोध नहीं जुड़ा हुआ हो तो ऐसे वक्र स्थैथिक अभिलाक्षणिक वक्र कहलाते हैं
> जब परिपथ में प्रत्यावर्ती धारा प्रवाहित हो तथा निर्गत टर्मिनलो के मध्य लोड प्रतिरोध लगा हो तब प्राप्त वक्र गतिक अभिलाक्षणिक वक्र कहलाते हैं

=> निर्गत अभिलाक्षणिक वक्र - नियत निवेशी  धारा के लिए वोल्टता तथा निर्गत धारा में गया अभिलाक्षणिक वक्र निर्गत अभिलाक्षणिक वक्र कहलाता है 

=> निवेशी अभिलाक्षणिक वक्र - नियत निर्गत वोल्टता के लिए निवेश धारा तथा निवासी वोल्टता के बीच खींचा गया वक्र निवेशी अभिलाक्षणिक वक्र कहलाता है

-:- उभयनिष्ठ आधार विन्यास अभिलाक्षणिक वर्क -

(1) -  P-N-P ट्रांजिस्टर के लिए उभयनिष्ठ आधार अभिलाक्षणिक वक्र - 

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> इसमें निवेशी परिपथ तथा निर्गत परिपथ को क्रमशः अग्र बायस तथा पश्य बायस में जोड़ा जाता है
> उत्सर्जन धारा को मापने के लिए M Amitter का प्रयोग किया जाता है

-:- निवेशी अभिलाक्षणिक वक्र -

> नियत निर्गत वोल्टता (VCB) पर निवेशी वोल्टता(VBE) तथा निवेशी धारा IC के मध्य खींचा गया वक्र निवेशी अभिलाक्षणिक वक्र कहलाता है

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> ग्राहक से स्पष्ट है कि VCB के नियत मान के लिए VBE के मान को बढ़ाने से IE का मान बढ़ता है

> VBE के निश्चित न्यूनतम मान से धारा प्रवाहित होती है उससे कम वोल्टेज पर धारा प्रवाहित नहीं होती इसे दहेली वोल्टता कहते हैं

निवेसी प्रतिरोध  image png

-:- निर्गत अभिलाक्षणिक वक्त - नियत निवेसी धारा IE के विभिन्न मानो पर निर्गत वोल्टता VCB तथा निर्गत धारा IC मध्य खींचा गया वक्र तथा ग्राफ या वक्त निर्गत अभिलाक्षणिक वक्र कहलाता है
 
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> प्रारंभ में VCB को बढ़ाने से संग्राहक धारा का मान तेजी से बढ़ता है
> VCB का मान अब और बढ़ाने पर IC का मान नहीं बढ़ता है अतः इस समय प्रवाहित संग्राहक धारा को संतृप्त संग्राहक धारा कहते हैं
> OA रेखा संतृप्त रेखा कहलाती है
> IE=0 वाले वक्र तथा VCB अक्ष के मध्य के क्षेत्र को अंतक क्षेत्र कहते हैं तथा अंतक क्षेत्र के अतिरिक्त शेष क्षेत्र सक्रिय क्षेत्र कहलाता है

=> धारा लाभ :- निर्गत धारा तथा निवेशी धारा के अनुपात को धारा लाभ कहते हैं तथा इस धारा लाभ का मान 1 से कम होता है (0.09 से 0.99)

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-:- उभयनिष्ठ उत्सर्जक अभिलाक्षणिक वक्र (N-P-N) - 

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=> इस विन्यास में बायीं और की आधार उत्सर्जक संधि को अग्र बायस तथा दायी और की संधि को पश्य बायस में जोड़ा जाता है

=> निवेशी अभिलाक्षणिक वक्र :- नियत निर्गत वोल्टता VCE के मध्य विभिन्न मानो पर VBE तथा IB के मध्य खींचा जाने वाला वक्र निवेशी अभिलाक्षणिक वक्र कहलाता है

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=> ग्राफ से स्पष्ट है कि VBE के मान को बढ़ाने से आधार धारा के मान में वृद्धि होती है तथा VBE के एक निश्चित न्यूनतम मान से आधार धारा प्रवाहित होना प्रारंभ होती है इस निश्चित न्यूनतम वोल्टता को देहली वोल्टता कहते हैं
=> निवासी प्रतिरोध( गतिक अवस्था मै) 

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=> निर्गत अभिलाक्षणिक वक्र - नियत निवेशी धारा IB के विभिन्न मानव पर निर्गत वोल्टता VCE तथा निर्गत धारा IB के मध्य खींचा गया वक्र निर्गत अभिलाक्षणिक वक्र कहलाता है

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> प्रारंभ VCE के मान बढ़ाने से धारा संग्राहक का मान भी बढ़ता है VCE मान को और बढ़ाने से IC का मान नहीं बढ़ता है इस स्थिति में प्रवाहित धारा को संतृप्त धारा कहते हैं
> OA रेखा संतृप्त रेखा कहलाती है
> IB व VCE के बीच का क्षेत्र अंतर क्षेत्र कहलाता है
> अंतक क्षेत्र के अतिरिक्त से क्षेत्र सक्रिय क्षेत्र कहलाता है

> ग्राहक से स्पष्ट होता है कि प्रारंभ में VCE मान बढ़ाने से IC का मान तेजी से बढ़ता है यदि VCE को और आगे बढ़ाया जाए तो IC के मान में अब वृद्धि नहीं होती अर्थात IC का मान लगभग नियत रहता है

> धारा लाभ  IMAGE PNG

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-:- अल्फा तथा बीटा में संबंध - 
 
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-:- प्रवर्धक (Amplifire) - वह युक्ति जिसके द्वारा प्राप्त निवासी संकेत को अधिक आयाम के निर्गत संकेत में रूपांतरित किया जा सके ऐसी युक्ति प्रवर्धक कहलाती है तथा यह प्रक्रिया प्रवर्धन कहलाती है

Example - श्रव्य आवृत्ति प्रवर्धक(Mice), 

> लाभ या लब्धि या प्रवर्धन गुणांक = निर्गत संकेत/ निवेशी संकेत

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-:- प्रवर्धक का ब्लॉक आरेख -

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-:- उभयनिष्ठ उत्सर्जक प्रवर्धक (P-N-P) ट्रांजिस्टर - 
इसमें निवेश ही संकेत को आधार तथा आधार बैटरी के ऋण सिरे के मध्य लगाया जाता है तथा निर्गत वोल्टता लोड प्रतिरोध के सिरों के मध्य प्राप्त की जाती है

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-:- अंकीय इलेक्ट्रॉनिकी :- 
इलेक्ट्रॉनिकी में 2 प्रकार के संकेत प्रयुक्त किए जाते हैं
(1) - अनुरूप संकेत 
(2) अंकरूप संकेत(Digital)

(1) - अनुरूप संकेत - जब वोल्टता या धारा समय के साथ सतत रूप से परिवर्तित होती हो तब संकेत अनुरूप संकेत कहलाता है 
जैसे - प्रवर्धक, दोलित्र

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(2) अंकरूप संकेत - जब संकेत स्पंद के रूप में होता है तब यह अंक रूप संकेत कहलाता है(0 और 1)

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-:- लॉजिक गेट या तार्किक तार - 
लॉजिक गेट एक तर्कसंगत परिपथ है जिसमें एक या एक से अधिक निवेशी टर्मिनल तथा केवल एक निर्गत टर्मिनल होता है

=> सत्य सारणी{Truth Table} - के सारणी एक ऐसी सारणी है जो किसी लॉजिक गेट के निवासी तथा निर्गत संकेतों की समस्त संभावनाओं को प्रदर्शित करती है

=> लॉजिक गेट के प्रकार - 
(1) OR गेट
(2) AND गेट
(3) NOT गेट
(4) NAND गेट
(5) NOR गेट
(6) BUFFER गेट
(7) XOR गेट
(8) X-NOR गेट

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(1) OR गेट(अपि द्वार) -  
> OR गेट एक ऐसा गेट होता है जिसमें दो या दो से अधिक निवेसी टर्मिनल तथा एक निर्गत टर्मिनल होता है
> किसी भी एक निवेशी के उच्च होने पर निर्गत उच्च होता है तथा सभी निवेशी संकेतों के निम्न होने पर निर्गत निम्न होता है

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> सत्य सारणी image

> OR संक्रिया को समांतर क्रम के जुड़े विद्युत स्विचो की सहायता से जाया जा सकता है
> स्विचA व B समांतर क्रम में है तथा एक बैटरी व बल्ब के साथ जुड़े हैं A व B की बंद अवस्था को(ON) 1 से व इसके खुले होने की अवस्था (OFF)  0 से तथा बल्बों को प्रदीप्त तथा अदीप्त अवस्थाओं को क्रमशः 1 व 0 से व्यक्त किया जाए तो 4 संभावनाएं होती है
> यदि स्विच A व B खुले है तो Y मैं कोई धारा नहीं रहेगी तथा यह अदीप्त स्थिति में होगा

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-:- डायोड पर आधारित द्वी निवेशी OR गेट -

> निवेशी A व B दोनों पर वोल्टता ओके मान 0 volt या 5 volt रखे जा सकते हैं 0० volt को 0 से तथा 5 volt को 1 से निरूपित किया जाता है निर्गत y, प्रतिरोध R के सिरों पर वोल्टता जबकि प्रतिरोध R का दूसरा सिरा भू-सम्पर्कित है।

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> जब A=B=0 अर्थात भी डायोड प्रचलित डायोड नहीं होगा तथा R पर कोई विभव पतन नहीं होगा या y=0 प्राप्त होगा।
> यदि A को 5 volt व B को 0 volt पर रखा जाए तो डायोड D1 अग्र बायस मैं बंद स्विच की भांति कार्य करेगा यदि R पर पृथ्वी के सापेक्ष विभव पतन होगा या y=1 अवस्था प्राप्त होगी।

(2) AND गेट - 

> AND गेट, में दो या दो से अधिक निवेशी तथा एक निर्गत होता है 
> दोनों निवेशी मै से एक भी निवेशी के निम्न होने पर निर्गत निम्न होता है जबकि दोनों निवेशी संकेत के उच्च होने पर निर्गत उच्च होता है

प्रतीक चिन्ह image

> सत्य सारणी image

(3) NOT गेट - 

> NOT गेट एक ऐसा गेट है जिसमे केवल एक ही निवेशी तथा एक ही निर्गत होता है तथा निर्गत पर निवेशी की विपरीत अवस्था होती है इससे प्रतिलोमक (Inverter) भी कहा जाता है

प्रतीक चिन्ह -  image

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> सत्य सारणी image

इसमें बल्ब के समांतर क्रम में एक स्विच जुड़ा है जब स्विच ऑन (1) तो बल्ब off(0) तथा जब स्विच off है तो बैटरी से प्राप्त धारा के कारण बल्ब प्रदीप्त होगा।

Note - NAND गेट  तथा NOR गेट सार्वत्रिक या सर में प्रयोग की सहायता से मुख्य गेट OR, AND, NOT गेट बनाए जा सकते हैं।

(8) X-NOR गेट -  image


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