Principles and Processes of Isolation of Element तत्वों के निष्कर्षण के सिद्धांत एवं प्रक्रम 12th Class Chemistry Chapter No 6
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Lesson - 6
तत्वों के निष्कर्षण के सिद्धांत एवं निष्कर्ष
धातुकरण की विधि :-
(1) चूर्णीकरण (गुरुत्वीय पृथक्करण विधि) - इस विधि में किसी दिए गए अयस्क को बारीक पीसकर किसी जल में से भरे पात्र में डाल कर इसे हिलाते हैं तो धूल मिट्टी के कण ऊपर सतह पर तैरने लगते हैं जबकि अयस्क के भारी कण पेंदे में बैठ जाते हैं अब इस अयस्क को निकालकर ढालू बाग पर रखकर जल की तेज धारा प्रवाहित करते हैं तथा आगे की तरफ से एक जाली लगा देते हैं जिससे धूल मिट्टी के कण निकल जाते है। तथा अयस्क शेष रह जाते हैं
(2) सांद्रण :- इसके लिए दो विधियां प्रयुक्त की जाती है
(a) - चुंबकीय पृथक्करण विधि (b) झाग प्लवन विधि
(a) - चुंबकीय पृथक्करण विधि -
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यह विधि सल्फाइड अयस्क को के लिए नहीं होती है इसमें अन्य किसी अयस्क को चुम्बक रोलर पर लगे वाहक पट्टो पर गिराते हैं जिससे वह गति करते हुए आगे बढ़ता है उस अयस्क में जो पदार्थ चुंबक के प्रति आकर्षित होते हैं वह एक तरफ एकत्रित हो जाते हैं जबकि जो पदार्थ चुंबक के गुण नहीं दर्शाते हैं वह सीधे गिरते रहते हैं
(b) झाग प्लवन विधि - यह विधि केवल सल्फाइड अयस्को के लिए होती है
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एक पात्र में पानी लेकर उसमें पिसा हुआ सल्फाइड अयस्क मिलाते हैं फिर इसमें विभिन्न पदार्थ मिलाकर वायु में प्रवाहित करते हैं जिससे अयस्क झागो के रूप में तैरने लगता है जिससे निथारकर रख कर लेते हैं तथा आधात्री के कारण भारी होने के कारण पेंदे पर बैठ जाते हैं इस विधि में विभिन्न पदार्थ प्रयुक्त किए जाते हैं जिनका विवरण निम्न प्रकार है
(1) झाग कारक - तारपीन या चीड (निलगिरी का तेल) को झाग कारक के रूप में प्रयुक्त करते हैं
(2) प्लवन कारक - इसके लिए सोडियम एल्किल (एथिल) जेंथेट मिलाते हैं यह सल्फाइड कणों में जल प्रतिकृषित बनाते हैं जिस से कण जल पर तैरते हैं इसे संग्राही भी कहते हैं
(3) फेन (झाग) कारक - इसके लिए क्रिसोल या एनिलिन को मिलाते हैं
(4) सक्रिय कारक - इसके लिए CuSo4 कौन मिलाते हैं जो कि लवण क्षमता में वृद्धि करता है
(5) अवनमक कारक - इसमें बनने वाले झागो को कम करने के लिए सोडियम सायनाइड या Na2Co3 को मिलाते हैं
Q - (1) ZnS तथा PbS को किस प्रकार पृथक किया जाता है स्पष्ट कीजिए?
Ans - Zn ब्लेड Zns तथा गेलेना (PbS) को पृथक करने के लिए NaCN को अवनमक के रूप में प्रयुक्त करते हैं यह NaCN झाग प्लवन विधि में ZnS को झागों मैं आने से रोकता है जबकि PbS को नहीं रोकता है इस प्रकार दोनों का पृथक्करण हो जाता है
-:- बॉक्साइट अयस्क से एल्युमीना प्राप्त करना - बॉक्साइट का सामान्य सूत्र Al2O3.2H2o होता है। इसमें Fe2O3, Sio2, Tio2 की अशुद्धियां पाई जाती है इन अशुद्धियों के आधार पर ही बॉक्साइट से एलुमिना प्राप्त करने की विधि का चयन किया जाता है
(1) बेयर विधि - जब बॉक्साइट अयस्क में Fe2o3 तथा अस्थाई O2 की अशुद्धियां लगभग समान मात्रा में उपस्थित हो तो इस विधि का प्रयोग किया जाता है इसमें दिए गए अयस्क में NaoH मिलाया जाता है
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(2) हॉल विधि - जब बॉक्साइट अयस्क में Fe2o3 की अशुद्धियां मिलाते हैं तो इस विधि का उपयोग करते हैं इसमें दिए गए अयस्क की क्रिया Na2Co3 कराते हैं।
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(3) सरपेट विधि - जब बॉक्साइड में Sio2 की अशुद्धियां मिलाते हैं तो इस विधि का उपयोग करते हैं इसमें दिए गए अयस्क की क्रिया C + N2 से कराते हैं
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-::- भ्रजन तथा निस्थापन :-
(A) भ्रजन :- यह प्रक्रम परावर्तनी भट्टी में कराया जाता है इसमें किसी सल्फाइड अयस्क को वायु की अधिकता में गर्म किया जाता है जिससे So2 गैस मुक्त हो जाती है तथा धातु का ऑक्साइड भ्रजित अयस्क के रूप में प्राप्त होता है
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=> कॉपर का भ्रजन -
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(B) निस्थापन :- यह भी परावर्तनी भट्टी में कराया जाता है इसमें किसी अयस्क को वायु की अनुपस्थिति में गर्म किया जाता है निस्थापन में सल्फाइड अयस्क नहीं लिया जाता है
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Q (2) भ्रजन तथा निस्थापन में अंतर लिखो?
भ्रजन - यह वायु की अधिकता में कराया जाता है
इसमें रासायनिक परिवर्तन होता है
निस्थापन - यह वायु की अनुपस्थिति में कराया जाता है
इसमें रासायनिक परिवर्तन नहीं होता है
Imp*
-:- प्रग्लन (कार्बन या कोक द्वारा अपचयन) - भ्रजित अयस्क का प्रगलन वात्या भट्टी में कराया जाता है
-> भ्रजित अयस्क को कार्बन (कोक) के साथ उच्च ताप पर गर्म करने से वह धातु में अपचयित हो जाता है इसे ही प्रग्लन कहते हैं
-> वात्या भट्टी लोहे की बनी होती है इसकी ऊंचाई लगभग 30 m तथा व्यास 6 से 8 मीटर होता है इसमें ईटो का सहस्त्तर लगा होता है
-> इस भट्टी में विभिन्न ताप स्तर पर भिन्न भिन्न अभिक्रियाएं संपन्न होते हैं जिन्हें उसके भिन्न भिन्न क्षेत्र कहा जाता है
-> अपचयन क्षेत्र - 673k से 973k
केंद्रीय क्षेत्र (ऊष्माशोषण क्षेत्र) - 1173k से 1473k
संगालित क्षेत्र - 1373k से 1573k
दहन क्षेत्र - 1773k से 2173k
-> इस भट्टी में दो तरफ वायु के टूवियर लगे होते हैं
-> वात्या भट्टी में होने वाली समीकरणे - वात्या भट्टी में भ्रजित अयस्क (ऑक्साइड अयस्क) 8 भाग तथा कार्बन (कोक) 4 भाग तथा CaCo3 एक भाग लिया जाता है
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-> इस प्रकम में अशुद्ध लोहे (पिग आयरन) प्राप्त किया जाता है
-> इसमें लगभग 4% कार्बन के अलावा P,S,Si,Mn, etc. की अशुद्धियां भी पाई जाती है
=> ढलवा लोह :-
गरम पिघले कच्चे लोहे को रेत से बने सांचे में डालकर ठंडा किया जाता है
इस लोहे को तेजी से ठंडा करने पर C की अशुद्धियां सिमेंटाइट Fe3C के रूप में उपस्थित रहते हैं इसे सफेद ढलवा लोहा कहते हैं|
यदि इसे धीरे-धीरे ठंडा किया जाता है तो कार्बन ग्रेफाइट के रूप में विद्यमान रहता है जिसे भूरा ढलवा लोहा कहा जाता है
Note - यदि ढलवा लोहे में कार्बन की अशुद्धियां 3% तक रह जाए तो यह अति कठोर तथा भंगूर रहता है तथा किसमें जंग भी नहीं लगता
=> पिटवा लोहा :- यदि लोहे का शुद्ध रूप होता है इसमें कार्बन की अशुद्धियां लगभग 0.2 प्रतिशत से 0.5 प्रतिशत तक होती है
धर्मवीर लोहे में अशुद्धियां होने के कारण वह लगभग 1473k से 1573k तक पिघलता है जबकि पिटवा लोहा 1823 k पर पिघलता है
-:- ढलवा लोहे से पिटवा लोहा बनाना -
-> परावर्तनी भट्टी में ढलवे लोहे को हेमेटाइट के साथ गर्म वायु द्वारा ऑक्सी कृत करते हैं जिससे कार्बन की अशुद्धियां कार्बन मोनोऑक्साइड के रूप में पृथक हो जाती है जबकि अन्य अशुद्धियां वाष्पिकृत हो जाती है
-> यह गालक के रूप में मिलाए गए चूना पत्थर CaCo3 से धातु मल CaSio3 बना लेते हैं जिससे इसे रोलर द्वारा वाष्प चलित हथौड़े से पीटा जाता है जिससे धातु मल बाहर आ जाता है तथा पिटवा लोहा प्राप्त होता है
-:- स्टील :- इस में कार्बन की मात्रा लगभग 0.15 से 1.5 % होती है जो ढलवा लोहे तथा पिटवा लोहे के मध्य होती है अर्थात स्टील ढलवा लोहे से शुद्ध होता है
-:- एल्युमीना से एल्यूमीनियम धातु प्राप्त करना (हॉल हेराल्ट विधि -
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इसमें एक स्टील के लोहे का पात्र लेते हैं जिससे कार्बन का अस्तर लगा होता है यह कैथोड का कार्य करता है इस सेल (पात्र) में ग्रेफाइट की छड़ी लगी होती है जो कि एनोड का कार्य करती है इस पत्र में Al2o3 के साथ क्रायोलाइट Na2AlF6 तथा फ्लोओरस्पात(CaF2) को मिलाकर इन के समांतर क्रम में बल्ब लगा देते हैं पात्र में लिए गए तीनों पदार्थों के मिश्रण पर कार्बन का चूर्ण फैला देते हैं जो इसे ठंडा होने से बताता है
Note - जब सेल में एल्यूमिना की मात्रा कम हो जाती है तो प्रतिरोध में वृद्धि के कारण बल्ब जलने लगता है
एल्युमिनियम का गलनांक 2323k होता है अतः Na2AlF6 तथा CaF2 को मिलाने से यह तक घटकर लगभग 1173k हो जाता है
सेल में होने वाली समीकरण
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=> द्वितीय धारणा के अनुसार विद्युत धारा प्रवाहित करने पर पहले क्रायोलाइट का वियोजन होता है
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-:- चांदी पर सोने के अयस्कों का निक्सालन -
(A) चांदी का निक्सालन -
अयस्क सिल्वर ग्लास अर्जेंटाइट(Ag2S) हॉर्न सिल्वर (Agcl)
चांदी के उपरोक्त अयस्को में NaCN या KCN को मिलाकर निक्सालन कराते हैं जिससे सिल्वर का संकुल प्राप्त होता है फिर इस संकुल में Zn जिंक मिलाई जाए तो Zn का संकुल प्राप्त होगा तथा सिल्वर धातु निक्षेपित हो जाती है
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(B) सोने का निक्सालन - इसके लिए शुद्ध सोने में NaCN को मिलाकर जल अपघटन के द्वारा इसे ऑक्सी कृत करते हैं तो सोने का संकुल प्राप्त होता है फिर इस संकुल Zn के साथ अभिर्कत कराया जाए तो जिंक का संकुल प्राप्त होता है तथा सोने(Au) का निक्षेपित हो जायेगा
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-:- बेसमरीकरण :-
-> प्रग्लन के पश्चात प्राप्त हुए अयस्क को बेसमर परिवर्तक भट्टी में डालकर इसका अपचयन कराते हैं
-> यह एक नाशपाती के आकार की स्टील की भट्टी बनी होती है
-> इसके अंदर अम्लीय sio2 अथवा क्षारीय mgo का अस्त्र लगा होता है जो कि गालक का कार्य करता है
-> इस भट्टी के एक तरफ नली लगी होती है जिससे वायु को भीतर भेजते हैं यह नली सुंडीका कहलाती है
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-::- अपचायको के चयन के लिए एलिंघम आरेख -
एक मोल ऑक्सीजन से जब भिन्न-भिन्न तत्वों की क्रिया कराई जाती है तो उन तत्वों के भिन्न-भिन्न प्रकार के ऑक्साइड प्राप्त होते हैं यदि भिन्न-भिन्न ताप पर इसके गिब्स ऊर्जा के मध्य व कर खींचे जाए तो इसे ही एलिंघम वक्र कहा जाता है
∆G° के धनात्मक तथा ऋणात्मक मान पर यह वक्र प्रभावित(परिवर्तित) होते हैं
=> एलिंघम आरेख के निष्कर्ष -
-> ∆G° का मान ऋणात्मक होने के कारण अभिक्रिया अग्र दिशा में संपन्न होगी
-> धातु ऑक्साइड के निर्माण में ∆G° का मान ताप पर निर्भर करता है
-> यदि किसी निकाय में दो या दो से अधिक अभिक्रियाएं एक साथ हो रही हो तथा उनके परिणामी ∆G° का मान भी ऋणात्मक हो तो ये सभी अभिक्रियाए अग्र दिशा में संपन्न होगी
-:- अयस्क के ऊष्मीय अपचयन में अलिंघम आ की विवेचना -
(1) इस आरेख से किसी धातु ऑक्साइड के धातु में अपचयन के लिए अपचायक का चयन किया जाता है
(2) यदि तत्वों के प्रावस्था परिवर्तन ठोस -> द्रव -> गेस हो रहा हो तो इनकी एंट्रॉफी परिवर्तन ∆s का मान बढ़कर धनात्मक होगा
(3) लेकिन यदि तत्वों में अवस्था परिवर्तन गैस -> द्रव -> ठोस होने पर एंट्रॉफी परिवर्तन घटकर ऋणात्मक होगा
(4) यदि अवस्था परिवर्तन नहीं हो रहा हो तो आरेख सीधी रेखा में ही प्राप्त होगा
(5) एलिंघम आरेख में जिन बिंदुओं पर ∆G° का मान ऋणात्मक होगा तो वह स्थाई होगा (धातु का ऑक्साइड) इसी प्रकार यदि ∆G° का मान धनात्मक होगा तो वह धातु ऑक्साइड अस्थाई होकर स्वत: विघटीत होने लगेगा
(6) किन्हीं दो धातु ऑक्साइडो के वक्र यदि एक दूसरे को काटते हैं तो उस कटान बिंदु पर ∆G° का मान शून्य होगा
(7) किसी अपचयन ताप पर प्राप्त होने वाली धातु के द्रव अवस्था में होने पर उस ठोस का अपचयन आसानी से होता है
-:- एलिंघम आरेख की सीमाएं -
(1) यह आरेख किसी धातु ऑक्साइड के अपचयन को दर्शाता है लेकिन उस अपचयन की बलगतिकी अर्थात अभिक्रिया के वेग को नहीं दर्शाता है
(2) यह आरेख किसी अभिक्रिया में अभिकारक तथा उत्पाद के ठोस अवस्था में होने पर सदैव सत्य नहीं होता
=> क्योंकि ठोसों के लिए साम्य स्थिरांक K का मान अर्थात K की संक्रिय सांद्रता को एक इकाई माना जाता है
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